नाटक-एकाँकी >> लाक्षागृह एवं अन्य नाटक लाक्षागृह एवं अन्य नाटकव्रात्य बसु
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इन नाटकों का सबसे बड़ा आकर्षण इनका भाषा-सौष्ठव और मंचीयता है जो इन्हें एक तरफ अभिनेय बनाती है तो दूसरी तरफ पठनीय भी। कथ्य स्वयं एक तत्त्व है जिसके लिए इन्हें पढ़ा ही जाना चाहिए।
बांग्ला के प्रख्यात नाटककार और रंगकर्मी व्रात्य वसु से हिंदी के पाठक अपरिचित नहीं है। लगभग चार वर्ष पहले 'चतुष्कोण' शीर्षक से उनके चार नाटकों का संग्रह हिंदी में अनूदित होकर आ चुका है, जिसे नाटक-प्रेमी पाठकों के साथ-साथ रंगकर्मियों ने भी बहुत उत्साह के साथ स्वीकार किया। इस नए संग्रह में उनके तीन नाटक संकलित हैं-- 'लाक्षागृह', 'संध्या की आरजू में भोर का सरसों फूल' और 'बम' (बोमा)। व्रात्य वसु का नाटककार अपने समय को लक्षित होता है लेकिन जहाँ से वे अपने वर्तमान को देखते हैं, वह एक वृहत दृष्टि-बिंदु है। इस संग्रह में शामिल नाटक भी इसके अपवाद नहीं हैं। 'लाक्षागृह' में यदि वे महाभारत कि एक घटना को आधार बनाकर मनुष्य कि चिरंतन प्रवृत्तियों कि पड़ताल करते हैं तो, 'संध्या कि आरजू...' के अपने पात्रों को आज के कॉरपोरेट तंत्र में स्थित करते हैं और इधर उभरी नई विडम्बनाओं पर प्रकाश डालते हैं। समय के इस बड़े अंतराल के बीच 'बम' कि पृष्ठभूमि आजादी के पहले का अविभाजित बंगाल है जिसमें हमें अरविन्द घोष मिलेंगे-ऋषि के रूप में नहीं, क्रान्तिकारी के रूप में....! इसके अलावा इन नाटकों का सबसे बड़ा आकर्षण इनका भाषा-सौष्ठव और मंचीयता है जो इन्हें एक तरफ अभिनेय बनाती है तो दूसरी तरफ पठनीय भी। कथ्य स्वयं एक तत्त्व है जिसके लिए इन्हें पढ़ा ही जाना चाहिए।
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